Saturday, July 30, 2016

एजॆडा सेटिंग थ्योरी:-


अमेरिका में 70 के दशक में मास कॉमयूनिकेशन थ्योरिस्ट मैक्सवैल मैकौम्ब्स और डोनाल्ड शॉ ने एजेंडा सेटिंग थ्योरी थ्योरी लिखी थी। इस थ्योरी में उन्होंने बताया था कि समाज में बहुत सारी समस्याएं हैं लेकिन मीडिया इन समस्याओं में से कुछ समस्याओं को चुन कर अपना एजेंडा बना लेता है। मीडिया के ऐसा सफलतापूर्वक करने के बाद लोगों को लगने लगता है कि वर्तमान में यही उनकी सबसे बड़ी समस्या है जिसका सबसे पहले हल निकलना चाहिए। ये थ्योरी राजनीति और मीडिया के संबंधों को दर्शाने के लिए लिखी गई थी।                                                      
                                                           भारत में इस समय मीडिया ने जो अहम मुद्दा बनाया हुआ है वो है दलित उत्पीड़न, मंहगाई, कश्मीर की हालत, नेताओं की बदजुबानी। मीडिया अपना एजेंडा बना रही है और संसद में हमारे विपक्षी नेता इन मुद्दों को इतनी शिद्दत से अहमीयत दे रहे हैं कि भारत के विकास का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है। आप ही बताइए कि भारत की तुलना अन्य देशों से करते वक्त किस चीज को पैमाना माना जाता है ? साल भर में भारत की शिक्षा व्यवस्था में हुए सुधार को या साल भर में कश्मीर के अंदर कितने घुसपैठियों को घुसने से रोका गया? भारत में बढ़े उत्पादन को या हमारे नेताओं कि फिसलती जुबान के बढ़ते उत्पादन को? मैं ये नहीं कहता कि इन मुद्दों को नजरअंदाज कर देना चाहिए लेकिन सिर्फ इन मुद्दों की आढ़ में जरूरी मुद्दों को भूल जाना कहां की समझदारी है। मीडिया कर्मियों को तो हम नहीं चुनते लेकिन जिन नेताओं के कंधों पर हमने भारत के विकास भार डाल रखा है वो संसद का पूरा वक्त अगर इन्हीं मुद्दों पर निकाल देंगे तो विकास कब तक इन मुद्दों के जाने का सहारा देखता रहेगा।

                                                 ये सब मैं सिर्फ इसलिए बता रहा हूं क्योंकि ये सारी थ्योरीज़ पढ़ने के बाद मैं भूल जाता हूं। और ऐसा कर के मैं सिर्फ इन्हें रिवाइज कर रहा हूं। वरना 23 साल की उम्र में हमें क्या पड़ी है समाज की समस्याओं की। अब अपना करियर देखें हम की ये सब। :P

Friday, July 29, 2016


महिलाओं का सम्मान या वोट बैंक का सामान ! 


विश्व में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। संसद में अन्य देशों में काफी बड़ी संख्या में महिलाएं पहुंच रही हैं। लेकिन भारत इसमें अभी भी काफी पीछे हैं। भारतीय राजनीति में पुरुषों का दबदबा होने के कारण पिछले 18 सालों से महिला आरक्षण बिल अधर में लटका हुआ है। इसका नतीजा ये हुआ कि 1991 से 2012 के बीच महिला प्रतिनिधियों की संख्या 9.7 प्रतिशत से बढ़कर 10.96 प्रतिशत हुई जो की ना के बराबर है। 1951 में जब पहली लोकसभा बैठी तो उसमें 22 महिलाएं सासंद थीं और 2014 लोकसभा चुनाव के बाद 66 महिलाएं सासंद के रूप में लोकसभा पहुंची। महिलाओं के संसद ना पहुंचने के पीछे बहुत सारे कारण बताए जाते हैं। कुछ का ये भी मानना है कि महिला प्रत्याशियों की जीतने की संभावनाएं बहुत कम होती है इसलिए राजनीतिक दल उन्हें टिकट देने से बचते हैं। इन कायासों के अलावा जो सबसे बड़ी वजह है वो ये की महिलाओं के प्रति इन राजनीतिक दलों का नजरिया। लखनऊ में हाल ही में हुआ घटनाक्रम इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि महिलाओं की भागीदारी से ज्यादा राजनीतिक दलों को ये चिंता है कि कैसे उनका इस्तेमाल वोट बैंक के लिए किया जाए।
         पूर्व बीजेपी नेता दयाशंकर की बीएसपी सुप्रीमो मायावती पर अभद्र टिप्पणी हो या उसके बाद बीएसपी कार्यकर्ताओं और नेताओं के उमड़े जनसैलाब द्वारा दयाशंकर की बेटी और पत्नी के लिए इस्तेमाल की गई अमर्यादित भाषा। ये पूरा घटनाक्रम सिर्फ एक ओर इशारा करता है कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए वोट बैंक की प्राथमिकता के आगे महिलाओं के सम्मान की कोई अहमियत नहीं है।
          बीएसपी और बीजेपी के अंदर महिलाओं के सम्मान के प्रति हाल ही में जागी चेतना के बारे में जब हमने लखनऊ विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के प्रोफेसर डॉ मुकुल श्रीवास्तव से बात की तो उन्होंने बताया कि राजनीतिक पार्टियों द्वारा ये सारा खेल सिर्फ महिलाओं का इस्तेमाल कर अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है। उनका मानना है की अगर बीजेपी को महिलाओं के सम्मान की इतना चिंता होती तो पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के लिए ऐसी अभद्र टिप्पणी का इस्तेमाल ना किया गया होता। और वहीं महिलाओं के सम्मान की पैरवी करने उतरी बीएसपी को अगर चिंता होती तो उसके कार्यकर्ता दयाशंकर की बेटी को पेश करो जैसे नारे नहीं लगाते।
                लखनऊ में हुए इस पूरे घटनाक्रम में महिलाओं का अपमान सिर्फ अभद्र टिप्पणी करने तक नहीं सीमित रहा बल्कि उसके बाद जैसे उसके बचाव में बीएसपी और बीजेपी नेताओं के बयान आए वो भी कम चौंकाने वाले नहीं थे। जहां एक ओर बीएसपी ये कहने में जरा भी शर्मींदगी नहीं महसूस कर रही कि दयाशंकर की बेटी को पेश करो के नारे को गलत तरीके से लिया गया तो वहीं बीजेपी ने भी दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह की इस घटना के शुरुआती दौर में कोई मदद ना कर के ये साबित करने की पूरी कोशिश की दयाशंकर की गलती की सजा उनकी पत्नी को मिले तो ठीक है लेकिन इससे पार्टी के वोट बैंक पर कोई असर नहीं होना चाहिए। हालांकि स्वाति सिंह को मिले जनसमर्थन के बाद बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाने की भरपूर कोशिश की।
                                अगर राजनीतिक दलों का महिलाओं के प्रति ऐसा ही नजरिया रहा तो अगले 18 सालों में भी अगर महिला आरक्षण बिल  नहीं पास होता है तो इस पर कोई हैरानी नहीं जतानी चाहिए।