महिलाओं का सम्मान या वोट बैंक का सामान !
विश्व में राजनीति
में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। संसद में अन्य देशों में काफी बड़ी संख्या
में महिलाएं पहुंच रही हैं। लेकिन भारत इसमें अभी भी काफी पीछे हैं। भारतीय
राजनीति में पुरुषों का दबदबा होने के कारण पिछले 18 सालों से महिला आरक्षण बिल
अधर में लटका हुआ है। इसका नतीजा ये हुआ कि 1991 से 2012 के बीच महिला
प्रतिनिधियों की संख्या 9.7 प्रतिशत से बढ़कर 10.96 प्रतिशत हुई जो की ना के बराबर
है। 1951 में जब पहली लोकसभा बैठी तो उसमें 22 महिलाएं सासंद थीं और 2014 लोकसभा
चुनाव के बाद 66 महिलाएं सासंद के रूप में लोकसभा पहुंची। महिलाओं के संसद ना पहुंचने के पीछे बहुत सारे
कारण बताए जाते हैं। कुछ का ये भी मानना है कि महिला प्रत्याशियों की जीतने की
संभावनाएं बहुत कम होती है इसलिए राजनीतिक दल उन्हें टिकट देने से बचते हैं। इन
कायासों के अलावा जो सबसे बड़ी वजह है वो ये की महिलाओं के प्रति इन राजनीतिक दलों
का नजरिया। लखनऊ में हाल ही में हुआ घटनाक्रम इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि महिलाओं
की भागीदारी से ज्यादा राजनीतिक दलों को ये चिंता है कि कैसे उनका इस्तेमाल वोट
बैंक के लिए किया जाए।
पूर्व बीजेपी नेता दयाशंकर की बीएसपी
सुप्रीमो मायावती पर अभद्र टिप्पणी हो या उसके बाद बीएसपी कार्यकर्ताओं और नेताओं
के उमड़े जनसैलाब द्वारा दयाशंकर की बेटी और पत्नी के लिए इस्तेमाल की गई
अमर्यादित भाषा। ये पूरा घटनाक्रम सिर्फ एक ओर इशारा करता है कि किसी भी राजनीतिक
दल के लिए वोट बैंक की प्राथमिकता के आगे महिलाओं के सम्मान की कोई अहमियत नहीं
है।
बीएसपी और बीजेपी के अंदर महिलाओं के
सम्मान के प्रति हाल ही में जागी चेतना के बारे में जब हमने लखनऊ विश्वविद्यालय के
जनसंचार विभाग के प्रोफेसर डॉ मुकुल श्रीवास्तव से बात की तो उन्होंने बताया कि
राजनीतिक पार्टियों द्वारा ये सारा खेल सिर्फ महिलाओं का इस्तेमाल कर अपने वोट
बैंक को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है। उनका मानना है की अगर बीजेपी को
महिलाओं के सम्मान की इतना चिंता होती तो पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के लिए ऐसी
अभद्र टिप्पणी का इस्तेमाल ना किया गया होता। और वहीं महिलाओं के सम्मान की पैरवी
करने उतरी बीएसपी को अगर चिंता होती तो उसके कार्यकर्ता दयाशंकर की बेटी को पेश
करो जैसे नारे नहीं लगाते।
लखनऊ में हुए इस पूरे घटनाक्रम
में महिलाओं का अपमान सिर्फ अभद्र टिप्पणी करने तक नहीं सीमित रहा बल्कि उसके बाद
जैसे उसके बचाव में बीएसपी और बीजेपी नेताओं के बयान आए वो भी कम चौंकाने वाले
नहीं थे। जहां एक ओर बीएसपी ये कहने में जरा भी शर्मींदगी नहीं महसूस कर रही कि
दयाशंकर की बेटी को पेश करो के नारे को गलत तरीके से लिया गया तो वहीं बीजेपी ने
भी दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह की इस घटना के शुरुआती दौर में कोई मदद ना कर के
ये साबित करने की पूरी कोशिश की दयाशंकर की गलती की सजा उनकी पत्नी को मिले तो ठीक
है लेकिन इससे पार्टी के वोट बैंक पर कोई असर नहीं होना चाहिए। हालांकि स्वाति
सिंह को मिले जनसमर्थन के बाद बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाने की भरपूर कोशिश की।
अगर राजनीतिक
दलों का महिलाओं के प्रति ऐसा ही नजरिया रहा तो अगले 18 सालों में भी अगर महिला
आरक्षण बिल नहीं पास होता है तो इस पर कोई
हैरानी नहीं जतानी चाहिए।
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