Saturday, April 11, 2015

मुर्गा खाने का दर्द 

चूहे का मुर्गे से क्या सम्बंध है ये तो मेरे कभी समझ नहीं आया लेकिन कभी-कभी पेट में कुछ ऐसे खुराफाती चूहे कूदते हैं जिनको सिर्फ मुर्गे की टांग खाने के बाद ही संतुष्टि मिलती है.… अब भाई जानवर तो जानवर है उसे क्या समझ उसे तो जो चाहिए वो चहिए, समझना तो हम इंसानो का पड़ता है लेकिन मेरी शुद्ध शाकाहारी लाला ब्राह्मण मम्मी( लाला इसलिए क्यूंकि सर नेम से तो वो लाला है पर कर्म से पंडित, और ब्राह्मण से पहले शाकाहारी इसलिए जोड़ना पड़ा क्यूंकि! छोड़िये अब मैं क्या बोलूं )  को क्या फिक्र उन चूहों की.....
      अब चूहों ने बड़े दिन बाद फरमाइश की थी तो मना भी नहीं  करते बना  इसलिए मैंने मुर्गा बाहर से लाना ही  मुनासिब समझा, रोटियां घर में मिल जाने का आश्वासन दिया गया था इसलिए मैंने रोटियों पर पैसे खर्च करना ठीक नहीं समझा।  मुर्गा आया तो उन धूल से सने बर्तनों को धोने का भी ख्याल आया जो कब से अलमारी के नीचे बैठे धूल खा रहे थे और अपनी किस्मत को रो रहे थे की आखिर उनकी किस गलती पर उन्हें इस अँधेरी कोठरी में फेंक दिया गया हैं (जिन्हें इस बात की जानकारी न हो उन्हें मैं बताना चाहूँगा कि जिस घर में मांस खाने का लेकर घर के सदस्यों के विचार अलग अलग हों वहां बर्तनों को उनके दोस्तों से अलग कर इसकी सजा दी जाती है ).....बर्तनो को धुलने बाद मैंने उन्हें किचन की देहलीज पर रख दिया ये सोच कर की थोड़ी देर में रोटियां भी मिल जाएँगी और उतनी देर ये बर्तन अपने पुराने दोस्तों को दूर से देख भी लेंगे। रोटियां पक कर कर तैयार हुईं तो मम्मी ने हमेशा की तरह रोटियों को चिमटे में लपेट कर प्लेट की तरफ निशाना साध कर फेंका, हालाँकि ये दूरी महज चार पांच फुट ही होती है मगर हर बार एक आध रोटियों के छिटक कर फर्श पर गिर जाने की संभावनाएं बनी ही रहतीं हैं.। हर बार की तरह इस बार भी एक रोटी ने इस तरह से प्लेट में जाने से साफ़ इंकार कर दिया मगर मम्मी ने यह कह कर उस रोटी को बाकियों के साथ शामिल करने की ज़िद कर ली कि जो खा रहे हो वही कौन सा साफ़ है और वैसे भी सुबह सुबह ही पूरा घर साफ़ किया है.। मैंने भी भूख को अपमान से ज़्यादा तवज्जो देते हुए रोटी उठा कर खाना शुरू कर दिया, मुर्गे की एक दो टाँगे नोचने के बाद जब प्यास का एहसास हुआ तो ख्याल आया पास में पानी तो है ही नहीं, खैर मैंने इसे एक मामूली सी गलती समझ कर पानी के लिए आवाज़ लगा दी और थोड़ी देर में मम्मी पानी ले कर पहुँच भी गईं लेकिन उनके चेहरे की भाव भंगिमा एक प्यासे को पानी पिलाने वाली न हो कर किसी कंपनी के उस मालिक के जैसी थी जो मानो यह कहना चाह रहा हो की अगर अगली बार ऐसी गलती हुई तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा। इन चढ़ी हुई त्योरियों के पीछे जो सबसे अहम वजह थी वो ये कि उन्हें न चाहते हुए भी मैंने मुर्गे के दर्शन करा दिए थे.। किसी तरह उन्होंने इसे अनजाने में हुई गलती समझ कर अपनी आँखों पर हाथ रख कर ग्लास में पानी डालना शुरू किया मगर इस बार निशाना थोड़ा ज्यादा चूक गया और पानी ने मेरी सब्ज़ी को और रसेदार बना दिया, अब उन्होंने मेरी गलती माफ़ की थी तो मजबूरन मुझे भी इस गुस्ताखी को गलती समझना पड़ा, हालाँकि अब खाने को प्लेट में कुछ खाने लायक नहीं बचा था और कुछ तैरते हुए अंश ही देखे जा सकते थे.…। 
              आज की कहानी से मैंने यह शिक्षा ली की मैंने मुर्गा खाना छोड़ दिया, मगर सिर्फ घर पर.………। 

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