Wednesday, June 3, 2015


गाय हमारी माता है पर कब से?


गाय हमारी माता है हमको कुछ नहीं आता है बचपन में इसका प्रयोग तब करते थे जब टीचर कोई सवाल करे और हमें उसका मतलब ना पता हो पर अब समझ में आने लगा है कि वाकई हमें कुछ नहीं आता है। अगर इसका ठीक से मतलब समझ पाते तो आज बीफ पर इतना बवाल ना कर रहे होते। बीफ को लेकर लोगों को लगता है कि इसमें गोमांस होता है पर भारत में बीफ का मतलब भैंस के मांस से होता है यह अलग बात है की अंतराष्ट्रीय बाजार में बीफ का मतलब गाय और भैंस के मास दोंनो से होता है। आस्था की चपेट में आया बीफ के बाजार को कितना नुकसान होगा इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत हर साल 65 से ज्यादा देशों को बीफ सप्लाई कर 19000 करोड़ का कारोबार करता है और ब्राजील के बाद दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक भी है। एक और रोचक जानकारी बीफ के बारे में यह की दुनिया भर में जितनी भैंस हैं उनकी आधी आबादी भैंस की भारत में पाई जाती है इसके बावजूद अगर यह दूसरे नंबर पर है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि अभी पूरी तरह से यह कारोबार फल फूल नहीं रहा है। अब बात करते हैं कि हाल ही में बीफ पर बैन ने क्यों ज़ोर पकड़ा हुआ है ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि भैंस की आड़ में कुछ लोग गैर कानूनी ढ़ंग से गाय की भी बलि चढ़ा कर इसका मांस बेच रहे हैं। अब इतना बड़ा कोयला घोटाला हुआ तो क्या कोयला आवंटन बंद हो गया ? नहीं ना तो अब ऐसा पछपात क्यों? वैसे तो भारत ही ऐसा देश है जहाँ गाय का मांस खाने पर प्रतिबंध है पर अगर लोगों को ऐसा लगता है कि यह हमेशा से रहा है तो ऐसा नहीं है वैदिक शास्त्र में ऐसे कई उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि उस दौर में भी गौमांस का सेवन किया जाता था। गोहत्या पर कभी प्रतिबंध नहीं रहा है पर पांचवी से छठी शताब्दी के आस पास छोटे छोटे राज्य बनने लगे और भुमि दान देने का चलन शुरु हुआ, इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया खासकर गाय का उसके बाद धर्मशास्त्रों में जिक्र होने लगा की गाय को नहीं मारना चाहिए। पांचवी छठी शताब्दी में दलितों की संख्या भी बढ़ने लगी थी उस वक्त ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में यह लिखना शुरु किया की जो गोमांस खाएगा वो दलित है। असली विवाद 19वीं शताब्दी में शुरु हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरछा के लिए अभियान चलाया और इसके बाद ऐसा चिहनित कर दिया कि जो गोमांस खाता है वो मुसलमान है। वैसे गोवंस की एक पूजा होती है जिसका नाम गोपाष्टमी इसके आलावा गाय के लिए अलग से कोई मंदिर नहीं होते। अब ज़रा सोचिए की बीफ पर बैन कितनी सही है?

Monday, May 25, 2015


केजरीवाल की राजनीतिक पारी के 100 दिन



पिछली बार अर्दशतकिय पारी खेलने से मात्र एक दिन से चूके अरविंद केजरीवाल (49 दिन की सरकार) ने इस बार शतक जड़ ही दिया यह अलग बात है कि इन्होंने यह रन बनाए नहीं हैं बल्कि बनवाए हैं। वैसे तो 67 सीटें जीतने के बाद राजनीती के खेत में केजरीवाल की ही फसलें लहलहा रही थी और दिलशाद से द्वारका, बदरपुर से बुराड़ी, राजीव चौक से रोहिणी, शाहदरा से सुलतानपुरी जहाँ तक भी नजरें जाती थी आप के आम ही (आप के विधायक) नज़र आ रहे थे। भाजपा की लुटी इज्ज़त बचाने के लिए भाजपा के तीन बल्लेबाज( 3 भाजपा के विधायक) ही बचे थे जिन्हें आप सरकार चाहती तो बाउंसर पर बाउंसर मार कर पूरे पांच साल आराम से छका सकती थी लेकिन जिस टीम का कप्तान अरविंद केजरीवाल जैसा हो उससे आप बाउंसर या यौरकर की उम्मीद नहीं कर सकते। इन्होंने तो दे ओवरपिच दे फुलटॉस फेंक कर जो 102 दिनों में अपनी इज्जत के रन उड़वाए हैं वो तो सबने देख ही लिए हैं। सबसे पहले तो इन्होंने आप पार्टी के लिए विकेट कीपिंग कर रहे योगेंद्र यादव का विकेट टीम से हमेशा के लिए उखाड़ फेंका और उसके साथ ही प्रशांत भूषण जो की गली में खड़े टीम की अबरु बचाने की कोशिश कर रहे थे उन्हें पतली गली से निकाल दिया, अनंद कुमार जो लॉग ऑफ पर खड़े थे उनकी लॉग बुक को टीम से हमेशा के लिए ऑफ कर दी। इस सब के बाद जो थोड़ी बहुत कसर बची थी वो ताजा मामले से पूरी हो गई। केजरीवाल को लगा की इतनी भारी बहुमत देख कर मैदान के अम्पायर (नजीब ज़ंग) उनकी तरफ होंगे और उन्हें जैसे चाहे वैसे खेलने देंगे पर हुआ इसके ठीक उलट दरअसल अम्पायर ने समझदारी दिखाते हुए थर्ड अम्पायर (केन्द्र सरकार) का दामन थाम लिया और दोनों ने मिल कर केजरीवाल की टूटी हुई नय्या में और बड़ा छेद कर दिया जिससे उन्हें डूबने में आसानी हो जाए। पांच साल के समम्दर जैसे दिखने वाले लंबे कार्यकाल में अपनी टूटी हुई नय्या के सहारे सही सलामत उस पार लग जाना केजरीवाल के लिए चुनौती बनता जा रहा है, अब यह देखने वाला होगा कि उनकी नांव में इज्जत की कुलहाड़ी से हुए छेद कब भर पाते हैं।

Saturday, April 25, 2015

"ये झटके थे ज़रा हट के"

"25 अप्रैल 2015"  एक महीने पहले ही सर ने मेल कर डिजर्टेशन जमा करने की आखरी तारीख का एलान कर दिया था,  लेकिन हर बार की तरह इस बार भी हमारे क्लास के वीर पुरुषों ने प्रोजेक्ट जमा करने की आखरी तारीख का फैसला खुद ही ले लिया, हमारे बैच की ये खासियत रही है की हमने अपने टीचर्स को कभी ज़्यादा तकलुफ्फ नहीं दिया.।  खैर मैं तो वैसे भी हमेशा से निकम्मा ही रहा हूँ इसलिए खुद को ज़्यादा तकलीफ न देते हुए सर की दी हुई तारिख को ही आखरी समझा यानि 25 अप्रैल 2015। घर से निकला तो दिमाग में यही चल रहा था कि आज किसी भी हालत में प्रोजेक्ट देना है, पर कॉलेज पहुँच कर जब मैंने प्रोजेक्ट दिखाया, सर ने प्रोजेक्ट में गल्तियों की झड़ी से लगा दी.। इतने में मुझे हल्का झटका महसूस हुआ, पहले तो लगा शायद यह सर की डाँट का असर है, की इतने में एक और झटके ने झटका दिया। इस बार मैंने क्लास में बैठे बच्चों के चेहरे देखे, सबके चहरे की हवाइयां उडी हुई थी वो समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर हुआ क्या ? या शायद समझ गए हों और इस बात का इंतज़ार कर रहे थे की जो उनके मन में चल रहा है वो बस कोई चिल्ला के एक बार कह दे.। हैरान परेशान चेहरे देख कर सर को भी समझ आ गया की वो भोलेनाथ नहीं है और ये कमरा उनके गुस्से से नहीं हिल रहा है, बस फिर क्या था जिस बात का सबको इंतज़ार था हमारे सर के कंठ से वो तीन जादुई शब्द निकल ही गए "भागो भूकम्प है"। हर तरफ अफरा तफरी का माहोल देखा जा सकता था, डूबती हुई नाव में चूहे जैसे अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भागते हैं कुछ ऐसा ही नज़ारा कैंपस में भी देखने को मिल रहा था, सब निकल कर अपने अपने डिपार्टमेंट के बाहर सड़क पर आ कर जमा हो गए.। कुछ देर खड़े रहने के बाद जब लोगों को ये यकीन हो गया की अब बला टल गई है, तब शुरू हुआ सिलसिला बयाने-हाले-दिल का। एक हमारे मित्र जो बेहद पतले दुबले हैं उन्होंने ज़ोर से हाथ हिला कर बताया की ATM ऐसे हिल रहा था, जिस तेज़ी हाथ हिलाया भाईसाहब ने उससे भूकंप की तीव्रता को गर मापा जाये तो वो 15 के ऊपर रही होगी। इतनी देर में एक नेता टाइप भाईसाहब अपनी पूरी पल्टन के साथ निकले, उनकी तोंद को देख कर ये कहा जा सकता है की अगर किसी दमदार चीज़ से धक्का दे कर इसे ज़बरदस्ती अंदर घुसा दें, तो इनकी तोंद आज से ज़्यादा तबाही मचाने वाली ताकत पैदा कर सकती है.। बातें भी जनाब अपनी तोंद को ध्यान में रख कर ही कर रहे थे उनका कहना था "ये भला कोई भूकम्प था"...........  15 मिनट बाद जब सारा मामला शांत हुआ तब हम लोग अपने अपने काम पर वापस लौट गए........ काम पर लौटे ज़रूर थे पर काम शुरू भी नहीं कर पाये थे कि अचानक दूसरा झटका लगा और फिर सब बाहर को भागे।  मैंने अपनी जान की परवाह किये बगैर अपने हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट के केबिन में जा कर उनको आवाज़ लगाई "भागिए सर"। सर जी चाय की चुस्की लेने वाले ही थे की मेरी आवाज़ सुन कर मेरे पीछे पीछे हो लिए और उनके पीछे पीछे हो लिए चौबे जी जो सर के लिए चाय लाये थे.। ईमानदारी के सागर में डुबकी लगा कर आये चौबे जी चाय के प्यालों से भरी थाली को उस वक़्त अपने हाथों में उठाये भाग रहे थे जब लोगों ने अपनी कीमती से कीमती चीज़ों को भी बर्बादी के भेंट चढ़ने को छोड़ दिया था, और जैसे ही सर के कदम थमे चौबे जी ने अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए कहा "सर चाय तो पी लीजिये"। 

Monday, April 20, 2015

४४ वर्षीय मसरत आलम बट के जीवन में कई उतार-उतार आये, चढ़ाव इसलिए नही कहा जा सकता क्यूंकि जब जब उन्होंने कश्मीरियों को चढ़ाने का मन बनाया सरकार ने उन्हें अंदर का रास्ता दिखाया। मसरत आलम पत्थर बाज़ी के इतने शौक़ीन थे की इसके लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा.।  यह मैं  नहीं कह रहा हूँ, ये बात तो मसरत आलम ने २०१० में अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए इंटरव्यू में खुद कबूली है,  मसरत आलम ने बताया की वो बचपन से ही पत्थर फेंक कर विरोध जताया करते थे, इतना ही नहीं पत्थर बाज़ी का जूनून इस हद तक सर पर सवार था की पत्थर का चुनाव भी वो मौसम के  अनुसार ही करते थे.। सर्दियों में मसरत आलम कंगरी फेंक कर (  कंगरी का इस्तेमाल जम्मू कश्मीर में लोग सर्दियों में अपने शरीर को गर्म रखने के लिए करते हैं ) विरोध जताया करते थे तो वहीँ गर्मियों में आम पत्थरों से भी काम चला लिया करते थे.। आलम के पत्थर बाज़ी का यह आलम था कि उन पर 2008 से 2010 के बीच पत्थर बाज़ी के आतंक की साज़िश रचने का आरोप लगा था और इसके लिए जम्मू कश्मीर पुलिस ने मसरत पर 10 लाख का इनाम भी रखा था, 2008 के अमरनाथ भूमि आंदोलन में करीब 100 युवक पत्थर बाज़ी के दौरान मरे गए थे मसरत को उस आंदोलन का मास्टर माइंड घोषित किया गया था। मसरत आलम के सितारे तो पहले से ही गर्दिश में चल रहे थे 1990 से लेकर अब तक मसरत करीब 19 साल जेल में ही बिता चुके हैं.। 10 नवंबर 1971 को जन्मे मसरत को पहली बार 2 अक्टूबर 1990 को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) १९७८ के तहत गिरफ्तार किया गया था.।  अक्टूबर 1990 से 2009 तक उनपर 10 बार (पीएसए) लगाया गया था.। कई बार तो ऐसा हुआ कि जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने उनकी गिरफ़्तारी को ख़ारिज कर दिया लेकिन उन्हें रिहा करने के बजाये किसी दुसरे केस में फ़ौरन गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में उन पर पीएसए लगाया गया गया.। मसरत की हर बार गिरफ़्तारी सिर्फ उनकी पत्थर बाज़ी की  वजह से नही होती थी, आलम पर देश विरोधी विचारों को सोशल मीडिया पर फ़ैलाने का भी आरोप है और तो और मस्जिदों में एंटी इंडिया की ऑडियो सीडी बांट कर लोगों को भड़काने के आरोप भी उनपर लगते रहें हैं.। आखरी दफे उन्हें 15 अक्टूबर 2014 को गिरफ्तार किया गया था लेकिन जम्मू कश्मीर पुलिस के अनुसार 12 दिनों के अंदर गृह मंत्रालय से उनकी गिरफ़्तारी की मंज़ूरी नहीं ली जा सकी थी जो की पीएसए के तहत ज़रूरी होती है, पुलिस के अनुसार इस दौरान उन पर कुल 27 दुसरे मामले भी दर्ज़ किये गए थे जिनमे 26 में उन्हें ज़मानत मिल गई थी बाकी एक मामले में अदालत ने उन्हें बरी कर दिया था आखिरकार सात मार्च 2015 को उन्हें रिहा कर दिया गया.। अभी कश्मीर की ठंडी हवा खाए मसरत को महीना भर ही नहीं हुआ था कि भाजपा ने मुफ़्ती सरकार पर दबाव बना कर उनकी घर वापसी का इंतेज़ाम कर दिया ,  इस बार मामला कट्टरपंथी अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी के स्वागत रैली में पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने को लेकर है अब गिलानी साहेब तो दिल्ली में अपनी ठण्ड की छुट्टियां बिता कर लौटे थे उनको खुश करने के चक्कर में एक बार फिर से आलम ने खुद का बेडा गर्ग कर लिया।

Saturday, April 11, 2015

मुर्गा खाने का दर्द 

चूहे का मुर्गे से क्या सम्बंध है ये तो मेरे कभी समझ नहीं आया लेकिन कभी-कभी पेट में कुछ ऐसे खुराफाती चूहे कूदते हैं जिनको सिर्फ मुर्गे की टांग खाने के बाद ही संतुष्टि मिलती है.… अब भाई जानवर तो जानवर है उसे क्या समझ उसे तो जो चाहिए वो चहिए, समझना तो हम इंसानो का पड़ता है लेकिन मेरी शुद्ध शाकाहारी लाला ब्राह्मण मम्मी( लाला इसलिए क्यूंकि सर नेम से तो वो लाला है पर कर्म से पंडित, और ब्राह्मण से पहले शाकाहारी इसलिए जोड़ना पड़ा क्यूंकि! छोड़िये अब मैं क्या बोलूं )  को क्या फिक्र उन चूहों की.....
      अब चूहों ने बड़े दिन बाद फरमाइश की थी तो मना भी नहीं  करते बना  इसलिए मैंने मुर्गा बाहर से लाना ही  मुनासिब समझा, रोटियां घर में मिल जाने का आश्वासन दिया गया था इसलिए मैंने रोटियों पर पैसे खर्च करना ठीक नहीं समझा।  मुर्गा आया तो उन धूल से सने बर्तनों को धोने का भी ख्याल आया जो कब से अलमारी के नीचे बैठे धूल खा रहे थे और अपनी किस्मत को रो रहे थे की आखिर उनकी किस गलती पर उन्हें इस अँधेरी कोठरी में फेंक दिया गया हैं (जिन्हें इस बात की जानकारी न हो उन्हें मैं बताना चाहूँगा कि जिस घर में मांस खाने का लेकर घर के सदस्यों के विचार अलग अलग हों वहां बर्तनों को उनके दोस्तों से अलग कर इसकी सजा दी जाती है ).....बर्तनो को धुलने बाद मैंने उन्हें किचन की देहलीज पर रख दिया ये सोच कर की थोड़ी देर में रोटियां भी मिल जाएँगी और उतनी देर ये बर्तन अपने पुराने दोस्तों को दूर से देख भी लेंगे। रोटियां पक कर कर तैयार हुईं तो मम्मी ने हमेशा की तरह रोटियों को चिमटे में लपेट कर प्लेट की तरफ निशाना साध कर फेंका, हालाँकि ये दूरी महज चार पांच फुट ही होती है मगर हर बार एक आध रोटियों के छिटक कर फर्श पर गिर जाने की संभावनाएं बनी ही रहतीं हैं.। हर बार की तरह इस बार भी एक रोटी ने इस तरह से प्लेट में जाने से साफ़ इंकार कर दिया मगर मम्मी ने यह कह कर उस रोटी को बाकियों के साथ शामिल करने की ज़िद कर ली कि जो खा रहे हो वही कौन सा साफ़ है और वैसे भी सुबह सुबह ही पूरा घर साफ़ किया है.। मैंने भी भूख को अपमान से ज़्यादा तवज्जो देते हुए रोटी उठा कर खाना शुरू कर दिया, मुर्गे की एक दो टाँगे नोचने के बाद जब प्यास का एहसास हुआ तो ख्याल आया पास में पानी तो है ही नहीं, खैर मैंने इसे एक मामूली सी गलती समझ कर पानी के लिए आवाज़ लगा दी और थोड़ी देर में मम्मी पानी ले कर पहुँच भी गईं लेकिन उनके चेहरे की भाव भंगिमा एक प्यासे को पानी पिलाने वाली न हो कर किसी कंपनी के उस मालिक के जैसी थी जो मानो यह कहना चाह रहा हो की अगर अगली बार ऐसी गलती हुई तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा। इन चढ़ी हुई त्योरियों के पीछे जो सबसे अहम वजह थी वो ये कि उन्हें न चाहते हुए भी मैंने मुर्गे के दर्शन करा दिए थे.। किसी तरह उन्होंने इसे अनजाने में हुई गलती समझ कर अपनी आँखों पर हाथ रख कर ग्लास में पानी डालना शुरू किया मगर इस बार निशाना थोड़ा ज्यादा चूक गया और पानी ने मेरी सब्ज़ी को और रसेदार बना दिया, अब उन्होंने मेरी गलती माफ़ की थी तो मजबूरन मुझे भी इस गुस्ताखी को गलती समझना पड़ा, हालाँकि अब खाने को प्लेट में कुछ खाने लायक नहीं बचा था और कुछ तैरते हुए अंश ही देखे जा सकते थे.…। 
              आज की कहानी से मैंने यह शिक्षा ली की मैंने मुर्गा खाना छोड़ दिया, मगर सिर्फ घर पर.………। 

Friday, April 10, 2015

सच्चे साथी भी रुलाते हैं.…। 
रात भर गर्लफ्रेंड से चैट करने के बाद सुबह कौन पहली क्लास में जाना पसंद करता है, वो भी तब जब हम बड़े हो गए हों और कॉलेज जाने लगे हों,(भैया ये स्कूल नही है जो हर क्लास करी जाये)ऐसा कुछ लोगों को कॉलेज में कहते सुना था .। कुछ रात भर की चैट की थकान होती थी और कुछ इस बात का घमंड की जितना हमारे उस खडूस टीचर को आता है उतना तो हमारा दुःख सुख का साथी गूगल कभी भी बता देगा और वो भी बिना किसी किचकिच के।
                              पता नही अब गूगल का डूडल ज्यादा खूबसूरत था या उस टीचर की शक्ल ज्यादा बदसूरत थी जो हर बार सुबह पहली क्लास  करने से रोकती थी,  अब कारण जो भी रहा हो, पर सुबह सुबह बाइक को घर की ढलान से ना उतारने का नतीजा यह हुआ की करियर ढाल से उतरने लगा..…अब जब करियर की अर्थी उठती नज़र आई तब वो ४ कंधे भी साफ़ दिखाई पड़ने लगे जिनके ऊपर जनाज़ा निकलने वाला था .…सबसे आगे तो आज भी गूगल खड़ा देखा जा सकता था, जो अपने मजबूत कंधो की तरफ इशारा कर के कह रहा था , "रख दे दोस्त अपने करियर की अर्थी", वादा है तुझसे, "जैसे तूने अपना समय जलाया था वैसे ही तेरे करियर की लाश भी जलेगी"… दुसरे कंधे से जिसने जनाज़े को सहारा दे रखा था वो थे हमारे कभी ना साथ छोड़ने वाले दोस्त, लेकिन शायद उन्हें अपनी अपनी जॉब पर जाना था तो शमशान जल्दी चलने की ज़िद पर अड़े थे। फिर भी मैं कहूँगा की इस कलयुगी समाज में ऐसे पक्के दोस्त कहाँ मिलते हैं, जो आखिरी वक़्त तक साथ दें.…अब जनाज़े का पूरा भार तो इनके ही कंधो पर आना था आखिर यहाँ तक  पहुँचाया भी इन्हों ने ही है लेकिन खानापूर्ती के लिए ४ लोगों की तो ज़रुरत तो होती ही है, तो पीछे से गर्लफ्रेंड और उसके नए बॉयफ्रेंड ने कन्धा लगाने की ठानी, चलो किसी और के साथ ही सही,  लड़की ने कहा था साथ नही छोडूंगी तो उसने अपनी बात रख ली ।।